
साभार उदय नारायण सिंह


प्रकृति मौन की प्रतिनिधि है।हमें वह कहीं भी,किसी भी रुप में दिखती है तो ऐसा लगता है,जैसे वह कुछ कहना चाहती है।हमसे बात करना चाहती है,हालांकि वह बोलती नहीं।उसका विहंगम रुप हो या सूक्ष्म
-दोनों ही परिस्थितियों में हम स्वयं को स्तब्ध और हतप्रभ पाते हैं।
प्रकृति का सौंदर्य शब्दातीत है।प्रकृति चुंकि भगवान का पूरक है,ऐसे में उसकी व्याख्या संभव भी नहीं है।जिसने भी ‘भगवान’ शब्द गढ़ा,उसकी गहरी दृष्टि को नमन।भगवान शब्द की अलौकिकता पर पहले एक दृष्टि डालते है-‘भ’ का मतलब भूमि,’ग’ का मतलब गगन,’व’ का मतलब वायु,’अ’ का मतलब अग्नि और ‘न’ का मतलब नीर से है।भूमि,गगन,वायु,अग्नि और नीर-यही पांच तत्त्व हीं तो हैं,जो ब्रम्हांड के सृजन का आधार हैं।भगवान पर आरोप है कि वो दिखते नहीं पर अगर इस परिभाषाई चमत्कार पर विचारें तो शायद हमें वह इन पांचों रुपों में से किसी न किसी एक रुप में तो हमेशा हमारे संग जुड़ें हैं।स्पष्ट है,
प्रकृति के ये पांचों तत्त्व साक्षात उपस्थित तो हैं पर ये मौन के द्योतक हैं।
इन पांचों तत्त्वों का रुप इतना सुंदर होता है कि हमें इनके संग चलते चलते अचानक रूक कर अवलोकन करना पड़ता है।यह सौंदर्य आंखों के रास्ते आत्मिक अनुभूतियों का सृजन करता है।सृजन की पीड़ा कुछ कहना चाहती है पर प्रकृति तटस्थ भाव से अपने स्थान पर चुप रहती है।वह बोलती नहीं,हम जैसों को बेचैन करती है।
गुरुदेव रबिन्द्र नाथ टैगोर प्रकृति के इतने बड़े भक्त थे कि राह चलते पेड़ पौधों से बात करते थे।एक क्षण ऐसा भी आता था,जब वह चेतना खोकर गिर जाते थे।लोग जब उन्हें होश में लाकर प्रश्न पूछते थे कि क्या हुआ?ऐसे में उल्टे ही लोगों से वे प्रश्न पूछ बैठते थे-कुछ हुआ था क्या?
यह होती है मौन की भाषा।मौन से जुड़ने का मतलब ही हुआ एक इतर दुनिया में प्रवेश।यहां शब्द नहीं होते बल्कि भावों की प्रबलता होती है।इस मौन को जानने का,इसे समझने का सहज मार्ग है प्रकृति से जुड़ना।
इस चित्र के अलौकिक रुप को देखें।इस में कुछ कहने की इच्छा नहीं होती बल्कि इच्छा भर आंख देखने की होती है।यही लालसा तो प्रकृति चाहती है कि हम सबों में भी जगे।हम सब उसके मौन संदेशों को समझ कर अपने आंतरिक जगत में प्रवेश करें और अपने बुद्धत्व को जागृत कर सकें -सुप्रभात


