


प्रकृति जब इस पर तूल जाय कि जो मेरी शरण में आ जाय,उसे सुरक्षित रखना है तो फिर क्या,आप स्वयं को उस के हाथों में सौंप दें।आप को वह शत प्रतिशत मां की तरह प्यार देगी,
दुलारेगी,अंकवार लेगी।वह इस का अंतर नहीं करेगी कि आप गरीब हैं या फिर धनी।उसे तो समर्पित भाव चाहिए
फिर मां का वात्सल्य उमड़ेगा और आप अकेले नहीं रह जायेंगें।आप वह हर चीज हासिल कर लेंगें,जो एक मां अपने बेटों को देती है।
अगर हम या आप एक सामान्य जीवन जीने के आदी हैं,दिखावा करने का स्वभाव नहीं है आपका या हमारा, फिर क्या-प्रकृति से जुड़ जाईये।उस के द्वारा दिये गये सभी संसाधन हमें बिना किसी रोग-ब्याधि के एक पूर्ण जीवन देने का सामर्थ्य रखते हैं।नदी का पानी,पेड़-पौधों के फल,जड़ी- बूटियां,भूख मिटाने के सभी उपक्रम और तो और शुद्ध वातावरण भी।
जंगल से प्राप्त खर-पतवारों से बनीं झोपड़ी में आराम से जीवनयापन किया जा सकता है।हां,ऐसे में निर्लिप्त भाव से,बिना कोई इच्छा रखे स्वस्थ जीवन जीने का आनंद उठाया जा सकता है।इस भागदौड़ में ऊंची अट्टालिकाओं की कामना,करोड़ों मूल्यों की गाड़ियों के मालिक बनने की स्पर्धा,सामाजिक प्रतिष्ठा की चाहत जैसी तमाम इच्छाओं के धनी अंततः बुढ़ापे में सब कुछ छोड़कर प्रकृति ही के शरण में आते हैं।अरबों-खरबों की संपत्तियों को दान कर देने के सैकड़ों उदाहरण हैं।ऐसे दानी उम्र की अंतिम दहलीज पर प्रकृति की विराटता को स्वीकारने को बाध्य होते हैं और उसी की शरण में आते हैं।
हमें सहज और सामान्य ही बनना होगा।यही उचित और सही मार्ग है।आप कल्पना कर सकते हैं,जब प्रतिस्पर्धात्मक जीवन शैली विकसित नहीं हुई होगी,तब लोग ऐसे ही जीवन व्यतीत करते होंगें।आज सपरिवार हम पहाड़ों-जंगलों के सान्निध्य में जाकर हर्षोल्लास से भर जाते है परन्तु पुनः लौट कर अपनी उसी दिनचर्या में लग जाते हैं,यूं कहें उलझ जाते हैं।इसके पीछे का एकमात्र कारण हमारी महत्वकांक्षाएं हैं।जीवन के सत्य को स्वीकारते हुए कि ना हम कुछ लेकर आए थे और ना लेकर जायेंगे,अगर हम आज ही से अपनी मां-प्रकृति-की गोद में बैठ जायेंगें,वह हमें बिना प्रश्न पुछे,अपने सीने से चिपका लेगी।
विचार करें हम सब-क्या ही अच्छा हो कि अपनी शरणदात्री के चरणों में स्वयं को समर्पित कर दिया जाय।शायद इस से बढ़कर सुखद जीवन का और कोई दूसरा उदाहरण नहीं हो सकता-


साभार उदय नारायण सिंह वाट्सअप
