
साभार जय प्रकाश सिंह आईजी शिमला



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हिन्दू-धर्म में परलोक सिधारे पूर्वजों की पूजा करने का विधान है। 15 दिनों तक चलने वाले पखवाड़े को पितृ-पक्ष या श्राद्ध-पक्ष कहते हैं। श्राद्ध की महिमा एवं विधि का वर्णन विष्णु, वायु, वराह व मत्स्य आदि पुराणों एवं महाभारत तथा मनुस्मृति आदि शास्त्रों में यथास्थान किया गया है। पंचांग के अनुसार, पितृ पक्ष का आरंभ भाद्रपद मास की पूर्णिमा से होता है और समापन आश्विन मास की अमावस्या पर होता है। इस वर्ष 10 सितम्बर से 25 सितम्बर तक का समय पितृ-पक्ष है। पितृ-पक्ष का महात्म्य उत्तर व उत्तर-पूर्व भारत में ज्यादा है। तमिलनाडु में आदि अमावसाई, केरल में करिकडा वावुबली और महाराष्ट्र में इसे पितृ पंधरवडा नाम से जानते हैं।
हम जो भी हैं वो अपने पितरों की बदौलत हैं। अत: हमारा कर्तव्य है कि हम उन पूर्वजों को याद करें और उनके किए का आभार व्यक्त करें। पितृ-पक्ष अपने देवों, परिवार, वंश-परंपरा, संस्कृति और इष्ट को याद करते हुए उनके निमित्त श्राद्ध व तर्पण करने का समय होता है। इन 15 दिनों के बीच किसी भी तरह के शुभ-कार्य करने की मनाही होती है। पुराणों के अनुसार मृत्यु के देवता ‘यमराज’ पितृ-पक्ष में जीव को मुक्त कर देते हैं ताकि वे स्वजनों के यहां जाकर तर्पण ग्रहण कर सकें। श्राद्ध स्त्री या पुरुष, कोई भी कर सकता है और घरों पर भी किया जा सकता है। मान्यता है कि सावन की पूर्णिमा से ही पितर मृत्यु लोक में आ जाते हैं और नवांकुरित कुशा की नोकों पर विराजमान हो जाते हैं। पितृ-पक्ष में हम जो भी पितरों के नाम का निकालते हैं, उसे वे सूक्ष्म रूप में आकर ग्रहण करते हैं। केवल तीन पीढ़ियों का श्राद्ध और पिंड दान करने का ही विधान है। गरुड़ पुराण के अनुसार, जिस तिथि को माता या पिता की मृत्यु हुई हो उस दिन उनके नाम से अपनी श्रद्धा और क्षमता के अनुसार ब्राह्मणों को भोजन करवाना चाहिए। जिन्हें पूर्वजों की मृत्यु तिथि याद न रही हो, वे आश्विन कृष्ण अमावस्या यानि ‘सर्वपितृमोक्ष अमावस्या’ को यह कार्य करते हैं, ताकि पितरों को मोक्ष मार्ग दिखाया जा सके। मान्यता है कि जब तक मृत आत्माओं के नाम पर वंशजों द्वारा तर्पण नहीं किया जाता, तब तक आत्माओं को शांति नहीं मिलती।
पितृ गायत्री मंत्र:
“ॐ पितृगणाय विद्महे जगत धारिणी धीमहि तन्नो पितृो प्रचोदयात्। ॐ देवताभ्य: पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च। नम: स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नम:। ॐ आद्य-भूताय विद्महे सर्व-सेव्याय धीमहि। शिव-शक्ति-स्वरूपेण पितृ-देव प्रचोदयात्।”
हमारी श्राद्ध प्रक्रिया में 6 तर्पण होते हैं : देवतर्पण, ऋषितर्पण, दिव्यमानवतर्पण, दिव्यपितृतर्पण, यमतर्पण और मनुष्यपितृतर्पण। इनके पीछे भिन्न-भिन्न दार्शनिक पक्ष बताए गए हैं। ‘देवतर्पण’ के अंतर्गत जल, वायु, सूर्य, अग्नि, चंद्र, विद्युत एवं अवतारी ईश्वर अंशों की मुक्त आत्माएं आती हैं, जो मानवकल्याण हेतु निःस्वार्थ भाव से प्रयत्नरत हैं। ‘ऋषितर्पण’ के अंतर्गत नारद, चरक, व्यास, दधीचि, सुश्रुत, वशिष्ठ, याज्ञवल्क्य, विश्वामित्र, अत्रि, कात्यायन व पाणिनि आदि ऋषियों के प्रति श्रद्धा आती है। ‘दिव्यमानवतर्पण’ के अंतर्गत जिन्होंने लोक-मंगल के लिए त्याग-बलिदान किया है, जैसे-पांडव, महाराणा प्रताप, राजा हरिश्चंद्र, जनक, शिवि, शिवाजी, भामाशाह, गोखले व तिलक आदि महापुरुषों के प्रति कृतज्ञता की अभिव्यक्ति की जाती है। ‘दिव्यपितृतर्पण’ के अंतर्गत जो अनुकरणीय परंपरा एवं पवित्र प्रतिष्ठा की संपत्ति छोड़ गए हैं, उनके प्रति कृतज्ञता हेतु तर्पण किया जाता है। ‘यमतर्पण’ जन्म-मरण की व्यवस्था करने वाली शक्ति के प्रति और मृत्यु का बोध बना रहे, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए करते हैं। ‘मनुष्यपितृतर्पण’ के अंतर्गत परिवार से संबंधित सभी परिजन, निकट संबंधी, गुरु, गुरु-पत्नी, शिष्य, मित्र आते हैं, यह उनके प्रति श्रद्धा भाव है।
निश्चय ही, पितृ-पक्ष हमें ऐसा अवसर देता है कि हम अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करें। यह उनके आत्मा की शांति के साथ-साथ हमारे सुख-समृद्धि और उज्ज्वल भविष्य का मार्ग प्रशस्त करता है।
सादर, जय प्रकाश सिंह, सारण, बिहार।
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