
दरख़्तों की पत्तियां अब टहनियों का दामन छोड़कर जमीन चूम रहीं हैं। शाखों पर बने परिंदों के घोंसले अब उजड़ चुके हैं। जिन डालियों से बने कलम से इंसानों को अपना भाग्य लिखना था उसे काटने के लिए इंसान ने हाथ में कुल्हाड़ी उठा ली है।


दरअसल हम पेड़ नही काट रहे, बल्कि संसार में सामंजस्य बनाए रखने वाले पर्यावरण का प्रकृति से ऐसी विसंगति को जन्म दे रहे हैं जो की कयामत से भी ज्यादा खतरनाक है।


कुल्हाड़ी छोड़कर पानी उठाए।
पौधों को काटें नही, उन्हें सीचें।।
बिचार संजीव कुमार वर्मा
कवि
