
साभार उदय नारायण सिंह



सारा ज़हां-ऊंचे-ऊंचे पर्वतों की बादलों से होड़,नदियां बहे रे सारे बंधनों को तोड़,फूलों की हंसी में बसी है मेरी जान, मुझको तो अपना सा लागे, सारा जहां—-!केवल उपरोक्त गीत की पंक्तियों का ही संदेश समझ ले आदमी तो फिर जीना सहज हो जाय।इतना विस्तारित रुप में प्रकृति ने अपने आपको हम सबों के सामने परोसा है और एक हम जैसे लोग हैं,जो उलझे हैं अपनी निज स्वार्थ लिप्सा में। जीवनयापन के लिए जो सहज भाव से प्राकृतिक रुप में उपलब्ध है,वह काफी है।हम सबों ने अपनी आवश्यकताओं को खुद विस्तारित किया है और आज भी करते जा रहे हैं।अनावश्यक इच्छाएं हमें जीवन चक्र से मुक्ति के उद्देश्यों से दूर ले जाती है।हम तात्कालिक परिस्थितियों में उलझ कर रह जाते हैं और हमारी खुशियां हम से दूर होती जाती है। सभी के लिए ईश्वर ने आवश्यकतानुसार संसाधन रख छोड़े हैं।हम इतने में ही अपना पूरा जीवन व्यतीत कर सकते हैं।हमें ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए कि उस ने अपनी नजर में रखते हुए हम सबों के लिए तमाम प्राकृतिक सुविधाएं रख दीं।आखिर हम कब चेतेंगें?क्या यही जीवन सत्य है?🙏

