
वाट्सअप साभार उदय नारायण सिंह


काकु-भारतीय शास्त्रीय संगीत का एक ऐसा शब्द है,जिसकी जादू के वे सभी कायल हैं,जो इस संगीत से जुड़े हैं।भाव की दृष्टि से ध्वनि में भेद होना ही काकु है।अब इसे और सहज ढ़ंग से कहूं तो आपको इसे प्रयोग के जरिये समझना होगा।
आप आंख मूंद कर बैठे हों और अचानक कोई आवाज आपको सुनाई पड़ती है।आप बिना आंख खोले बोल देते हैं-अरे ये तो कुत्ता है।वही कुत्ता अगर गुर्राता है,तब के ध्वनि का प्रभाव और जब रोता है,तब की ध्वनि का प्रभाव-दोनों में अंतर भी आप महसूस कर लेते हैं।कुत्ते का भौंकना,कुत्ते का गुर्राना,कुत्ते का रोना जैसी क्रियाएं ध्वनि के अंतर विशेष के प्रभाव से हम जान लेते हैं।यहां भाव के अनुसार ध्वनि में अंतर आता है और इसी क्रिया को संगीत जगत में “काकु” कहा गया है।
ध्वनि से स्वर है।स्वर को समझने के लिए पहले ध्वनि के सिद्धांत को जानते हैं-जैसे हीं आप एक हथौड़ा किसी ठोस वस्तु पर चलाते हैं,वहां से एक आवाज निकल
कर आप को सुनाई देगी।मतलब किन्हीं दो वस्तुओं के टकराव के बाद निकलने वाली आवाज ही ध्वनि है।यह ध्वनि अगर कुछ देर तक सुनाई दे तो वह संगीत का आधार बन जाती है। संगीत के उपयोग में आने वाली मधुर आवाज में निरंतरता होना,कुछ क्षणों तक सुनाई देते रहना-शर्त्त होती है।
ऐसी ध्वनि को अगर वैज्ञानिक आधार पर विस्तारित किया जाय तो यह छोटे छोटे टुकड़े मे़ बंटी हुई महसूस होगी और यही छोटे टुकड़े संगीत में “श्रुति” कहलाते हैं।
इन्हीं श्रुतियों के कमाल से “काकु” बनता है।यह काकु का ही कमाल है कि हर ध्वनि को हम बिना देखे-जाने, केवल सुन कर ही सही आंकलन कर लेते हैं कि कुत्ता रो रहा है या बच्चा हॅंस रहा है।बच्चों की रूदन का कारण क्या हो सकता है,इसे भी “काकु विशेषज्ञ” बतला देते हैं।
कभी शास्त्रीय संगीत की दुनिया में आईए और इसका कमाल समझने का प्रयास कीजिए।विश्वास कीजिए,
आपको दूसरी दुनिया प्यारी नहीं लगेगी-सुप्रभात।

