
दक्षिण भारत में एक महत्वपूर्ण विधि आयोजित की जाती है।यह आयोजन उन कन्याओं को लेकर होता है,जो रजस्वला के प्रथम अनुभव से गुजरती हैं।प्रथम अनुभव के पांचवें दिन ये कन्याएं मंदिरों में ले जाईं जाती हैं और इन्हें परिवार के सदस्यों की उपस्थिति में मंदिरों के पूजारी पवित्र जल से स्नान करा कर पुष्प-अक्षत अर्पित करते हैं।फिर वेद मंत्रों से इनकी अभ्यर्थना होती है।इस विधि में परिवार के संग-संग पूरे समाज की भागीदारी होती है।सामूहिक भोज भी आयोजित किये जाते हैं।यह पूजा विधि दक्षिण भारत के किसी भी मंदिरों में हर रोज कहीं ना कहीं दीख जाती है।यह वहां का एक महत्वपूर्ण पर्व माना जाता है।
रजस्वला होते ही परिवार और समाज की दृष्टि में ऐसी कन्याएं पूजनीय हो जाती हैं।ऐसी बालिकाओं को लेकर सभी सदस्य इस बात से पूर्णतया संतुष्ट हो जाते हैं कि यह अब भविष्य में परिवार वृद्धि के दायित्वों के निर्वहन में सक्षम हो गई।पूजा की विधियों से गुजरना पारिवारिक और सामाजिक स्वीकृति पाना होता है।
प्रकृति के महत्वपूर्ण कारकों में स्त्री और पुरुष को माना गया है।इन दोनों के संयुक्त प्रयास से ही वंश वृद्धि संभव होती है।स्त्री पक्ष को वंश वृद्धि हेतु पहली आवश्यकता रजस्वला होने की ही होती है।रजस्वला होना हालांकि एक नैसर्गिक प्रक्रिया है पर वह इस बात का भी द्योतक है कि बेटी अब इस योग्य हो गई कि इसका विवाह किसी उचित वर(पुरुष)के संग करा दिया जाय।
सनातन ने इस विवाह के महत्व को समझते हुए ही इसे सोलह संस्कार की श्रृंखला का एक महत्वपूर्ण संस्कार माना।यह विवाह तभी संभव है,जब किशोरी रजस्वला हो और किशोर तरूण हो।चुंकि भविष्य में संतान उत्पन्न करने की महती भूमिका में यही युवा-युवती होते हैं,ऐसे में यह नैसर्गिक क्रिया(रजस्वला)एक आवश्यक क्रिया के रुप में समाज स्वीकार करता है।
उत्तर भारत में इस क्रिया को वृहद रुप से नहीं मनाने के कारणों को मैं नहीं जानता पर कुछ ऐसे सुलझे घर
मिले हैं देखने को,जहां ऐसी बेटियों की पूजा घर ही में की जाती है।
भारत एक अति प्राचीनतम संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता देश है।स्त्रियों को यहां सामाजिक संरचना के प्रारंभ से ही प्रतिष्ठा दी जाती रही है और इसके पीछे वंश वृद्धि में संयुक्त साझीदार होना भी एक कारण है।एक स्वस्थ महिला,स्वस्थ बच्चों को उत्पन्न करने का आधार होती हैं।इनका रजस्वला होना इनके स्वस्थ होने का भी बोध कराती है।ऐसे में इसे एक उत्सव के रुप में मनाया जाना सुखद और आनंददायक लगता है।उत्तर भारत में रजस्वला हुई लड़कियां हीन भावना से ग्रसित हो जाती हैं।वे शर्म महसूस करती हैं,शायद यह भी कारण रहा हो इसे बड़े उत्सव के रुप में नहीं मनाने का।
हमें भारत के हर उस पुरातन पर्व के विधियों,इस के पीछे छुपे उद्देश्यों के महत्वों को समझना होगा।यहां पूर्व से संपन्न होते आ रही हर पूजा किसी ना किसी उद्देश्य सिद्धि के लिए ही संपन्न होते हैं।ऐसे में दक्षिण भारत में ही सही
,इस पूजा का उद्देश्य गर्व पूर्ण है।हम भी अपनी बेटियों की इस खुशी में सम्मिलित होकर गर्वित होवें।
सुप्रभात।


